तेरे शहर से तो कहीं अच्छा है मेरा गाँव
नंगे पाँवों में भी यहाँ कंकड़ चुभते नहीं...
अनगिनत लोगों की है भीड़ शहर में
कोई किसी का नहीं हमदर्द शहर में
तन्हाई में काटती हर कोई अपनी ज़िंदगी
उबकाई सी आने लगती, है पड़ी इतनी गंदगी
भागता हुआ नजर आता सभी, तेजी से बढ़ाता पाँव
तेरे शहर से तो कहीं अच्छा है मेरा गाँव
लम्बी -चौड़ी सड़कें हैं शहर में तो क्या हुआ
चलने में मिलती पगडण्डी जैसी आजादी कहाँ
गूंजती हैं वहाँ वाहनो के चीखने की आवाज़
कोयल की मीठी कूक सुनने को मिलती है यहाँ
मिल जाता पहले ही अतिथियों के आने की सूचना
छप्पर पर बैठा कौआ जब करता काँव-काँव
तेरे शहर से तो कहीं अच्छा है मेरा गाँव....
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