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Wednesday, 17 July 2019

बाज

ऐसा पक्षी जिसे हम ईगल भी कहते है! जिस उम्र में बाकी परिंदों के बच्चे चिचियाना सीखते है उस उम्र में एक मादा बाज़ अपने चूजे को पंजे में दबोच कर सबसे ऊंचा उड़ जाती है!

पक्षियों की दुनिया में ऐसी
Tough and tight training
किसी भी और की नही होती!
मादा बाज़ अपने चूजे को लेकर लगभग 12 Km ऊपर ले जाती है!

जितने ऊपर आधुनिक जहाज उड़ा करते हैं और वह दूरी तय करने में मादा बाज़ 7 से 9 मिनट का समय लेती है!

यहां से शुरू होती है उस नन्हें चूजे की कठिन परीक्षा!
उसे अब यहां बताया जाएगा कि तू किस लिए पैदा हुआ है ?
तेरी दुनिया क्या है ?
तेरी ऊंचाई क्या है ?
तेरा धर्म बहुत ऊंचा है और फिर मादा बाज़ उसे अपने पंजों से छोड़ देती है!

धरती की और ऊपर से नीचे आते वक्त लगभग 2 Km उस चूजे को आभास ही नहीं होता कि उसके साथ क्या हो रहा है!
7 Km के अंतराल के आने के बाद उस चूजे के पंख जो कंजाइन से जकड़े होते है, वह खुलने लगते है!

लगभग 9 Km आने के बाद उनके पंख पूरे खुल जाते है! यह जीवन का पहला दौर होता है जब बाज़ का बच्चा पंख फड़फड़ाता है!

अब धरती से वह लगभग 3000 मीटर दूर है लेकिन अभी वह उड़ना नहीं सीख पाया है! अब धरती के बिल्कुल क़रीब आता है जहां से वह देख सकता है उसके स्वामित्व को!

अब उसकी दूरी धरती से महज 700/800 मीटर होती है लेकिन उसका पंख अभी इतना मजबूत नहीं हुआ है की वो उड़ सके!

धरती से लगभग 400/500 मीटर दूरी पर उसे अब लगता है कि उसके जीवन की शायद अंतिम यात्रा है! फिर अचानक से एक पंजा उसे आकर अपनी गिरफ्त मे लेता है और अपने पंखों के दरमियान समा लेता है!

यह पंजा उसकी माँ का होता है जो ठीक उसके उपर चिपक कर उड़ रही होती है! और उसकी यह ट्रेनिंग निरंतर चलती रहती है जब तक कि वह उड़ना नहीं सीख जाता!

यह ट्रेनिंग एक कमांडो की तरह होती है। तब जाकर दुनिया को एक बाज़ मिलता है अपने से दस गुना अधिक वजनी प्राणी का भी शिकार करता है! और उसे अपने पंजों में जकड़कर उड़ जाता है आसमान में! और इस तरह बाज़ लगभग 70 वर्ष जीता है!

परन्तु उसके जीवन का संघर्ष यहीं नहीं ख़त्म होता है, अपने जीवन के 40वें वर्ष में आते-आते उसे फ़िर से एक महत्वपूर्ण निर्णय लेना पड़ता है ख़ुद को साबित करने के लिए!
उस अवस्था में उसके शरीर के 3 प्रमुख अंग निष्प्रभावी होने लगते हैं...

1st -पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है, तथा शिकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं!

2nd -चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है, और भोजन में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है!

3rd -पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से चिपकने के कारण पूर्णरूप से खुल नहीं पाते हैं और उड़ान को सीमित कर देते हैं!

भोजन ढूँढ़ना, भोजन पकड़ना, और भोजन खाना...
तीनों प्रक्रियायें अपनी धार खोने लगती हैं!

अब उसके पास तीन ही विकल्प बचते हैं...

1st. देह त्याग दे,
2nd. अपनी प्रवृत्ति छोड़ गिद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निर्वाह करे,
3rd. या फिर "स्वयं को पुनर्स्थापित करे"
आकाश के निर्द्वन्द एकाधिपति के रूप में!

जहाँ पहले दो विकल्प सरल और त्वरित हैं!
अंत में बचता है तीसरा लम्बा और अत्यन्त पीड़ादायी रास्ता!
बाज़ चुनता है तीसरा रास्ता...
और स्वयं को पुनर्स्थापित करता है!
वह किसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है, एकान्त में अपना घोंसला बनाता है...
और तब स्वयं को पुनर्स्थापित करने की प्रक्रिया प्रारम्भ करता है!!

सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार-मार कर तोड़ देता है, चोंच तोड़ने से अधिक पीड़ादायक कुछ भी नहीं है पक्षीराज के लिये!और वह प्रतीक्षा करता है चोंच के पुनः उग आने का...

उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है, और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने का...

नयी चोंच और पंजे आने के बाद वह अपने भारी पंखों को एक-एक कर नोंच कर निकालता है!और प्रतीक्षा करता है पंखों के पुनः उग आने का...

150 दिन की पीड़ा और प्रतीक्षा के बाद, उसे मिलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान पहले जैसी...

इस पुनर्स्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है!
ऊर्जा, सम्मान और गरिमा के साथ!
इसी प्रकार इच्छा, सक्रियता और कल्पना, तीनों निर्बल पड़ने लगते हैं हम इंसानों में भी!
हमें भी भूतकाल में जकड़े अस्तित्व के भारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी!
150 दिन न सही...
60 दिन ही बिताया जाये स्वयं को पुनर्स्थापित करने में!
जो शरीर और मन से चिपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही...

और फिर जब बाज़ की तरह उड़ानें भरने को तैयार होंगे,
इस बार उड़ानें और ऊँची होंगी,
पहले से ज़्यादा अनुभवी होंगी,
अनन्तगामी होंगी...
हर दिन कुछ चिंतन किया जाए और आप ही वो व्यक्ति हैं जो ख़ुद को सबसे बेहतर जान सकते हैं! सिर्फ़ इतना निवेदन है की छोटी-छोटी शुरुवात करें परिवर्तन करने की!

हिंदी में एक कहावत है...
"बाज़ के बच्चे मुँडेर पर नही उड़ते!"

बेशक़ अपने बच्चों को अपने से चिपका कर रखिए पर उसे दुनियां की मुश्किलों से रूबरू कराइए, उन्हें लड़ना सिखाइए!
बिना आवश्यकता के भी संघर्ष करना सिखाइए!

वर्तमान समय की अनन्त सुख सुविधाओं की आदत व अभिवावकों के बेहिसाब लाड़ प्यार ने मिलकर, आपके बच्चों को "ब्रायलर मुर्गे" जैसा बना दिया है!

जिसके पास मजबूत टंगड़ी तो है पर चल नहीं सकता!
वजनदार पंख तो है पर उड़ नही सकता क्योंकि...

"गमले के पौधे और जंगल के पौधे में बहुत फ़र्क होता है!"



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