अर्ज़ है -
मेरे बच्चों की उम्मीदों को यूं बेवक़्त मारा मैंने
चाँद महंगा था बाजार में ख़रीदा था तारा मैंने
अल्लाह से मांगकर थक गया था किसी रोज़
फीर हारकर इंसानो के आगे हाथ पसारा मैंने
आखिर ये ख़्वाब मेरे बस ख़्वाब ही रहे ता'उम्र
उम्मीदों से कर लिया किसी रोज़ किनारा मैंने
गहनों के घाट के बारे में मेरी बेटी से पूछ देखो
पिले पत्तो से उसकी शादी में उसको संवारा मैंने
वोह समझते थे दामन में कुछ छिपा रखता हूँ
फिर हलके हलके यूं ज़ख्म से पर्दा उतारा मैंने
एक शाम मेरे घर की दहलीज पर थका हुआ
बैठकर मेरा गरीब खाना देर तलक़ निहारा मैंने
कुछ साल होते मशक्कत के तो भला बीत जाते
लम्हा लम्हा ज़िन्दगी का इम्तेहान सा गुजारा मैंने
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